23 दिसंबर 2009

रुचिका,राठौर और हमारा तंत्र !

रुचिका के बारे में आज हम सब भूल जाते ,पर एक जागरूक नागरिक का फर्ज़ पूरा करते हुए प्रकाश-परिवार ने वह मिसाल कायम की है, जिसे लोग अपने लोगों के लिए भी करने में घबड़ाते हैं। वह किशोरी एक 'बुरे अंकल' और ज़िम्मेदार ओहदे पर बैठे शख्स की बदनीयती का शिकार हो गई और हमारा तंत्र उस 'राठौर' को छः महीने का प्रतीकात्मक 'दंड' देकर मानो अपने कर्तव्य से छुट्टी पा गया हो ! तिस पर तुर्रा यह कि मामले पर फैसला आने के बाद उस 'शैतान' के चेहरे पर घोर कुटिल हँसी दिख रही थी, जो उन सी बी आई के अफसरों को नहीं दिखी ,जो यह कहकर उसकी सज़ा कम करने की पैरवी कर रहे थे कि लंबा मुकदमा और उनकी उम्र को ध्यान में रखा जाये !

क्या इस तंत्र पर हमें हँसी नहीं आती ,जो एक तरफ एक निर्दोष बालिका की पूरी ज़िन्दगी को अनदेखा कर रहा है व उस संवेदन-हीन अफ़सर के कुछ महीनों को बहुमूल्य बता रहा है ? हमारा तंत्र और कानून इस बात का ख्याल रखता है कि पीड़ित का पक्ष देखा जाये पर यहाँ तो शुरू से ही मामला उल्टा रहा ।जिस घटना के फलस्वरूप एक जान चली गयी हो उसमें केवल छेड़-छाड़ का मामला दर्ज करके पहले ही इस मामले को दफ़न करने का पुख्ता इंतज़ाम कर लिया गया था जिसमें नेता,अफ़सर और जांच अधिकारी सब की मिली-भगत थी।

बहर-हाल ऐसे इंसान को सरे-आम नंगा करने के लिए अनुराधा प्रकाश और उनके माता-पिता बधाई के पात्र हैं!

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